Monday, May 30, 2011

विकास बनाम विस्थापन

सड़क के एक छोर पर वैशाली और वसुंधरा जैसी आलीशान कालोनियां है तो दूसरी तरफ औद्योगिक समृद्धि की प्रतीक साहिबाबाद इंडस्ट्रियल एरिया का साइट फोर है.  बीच में पड़ने वाले करीब दर्जनभर मॉल, मल्टीप्लेक्स और होटल यह यकीन दिला देते हैं कि हमारा भारत भी अब विकसित देशों से पीछे नहीं रहा. हांयहां से गुजरने वाली आलीशान और लग्जरी गाडियों के बीच हिचकोले खाते रिक्शे जरूर एक विरोधाभाष पैदा करते हैं. इस इलाकें में जितने घर हैं उससे कई गुना गाडियां हैं. और जितने अपार्टमेंट हैं उससे कहीं ज्यादा रिक्शे. गाडियों और रिक्शों के संबंधों की एक क्रूर कहानी है. रिक्शा चलाने वाले ज्यादातर किसान हैं.  कुछ आस पास के गांवों के हैं, जिनकी जमीनों पर यह कालोनियां बसाई गई है तो कुछ रोजी-रोटी की तलाश में दूसरे राज्यों से पलायन करके आए हैं
सत्ता के शिखर पर बैठे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को किसानों से कितनी हमदर्दी है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि किसानों की जमीन संबंधी समस्याओं पर गौर करने के लिए उनकी अध्यक्षता में करीब ढ़ाई साल पहले गठित लैंड रिफार्म काउंसिल यानी भूमि सुधार परिषद की अभी तक एक भी बैठक नहीं हुई है. एकता परिषद के नेशनल कोआरडिनेटर (एडोकेसी) अनीश कुमार कहते हैं, “प्रधानमंत्री को परमाणु बिल तैयार करने के लिए समय है लेकिन भूमि सुधार बिल के लिए नहीं. प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में जनवरी, 2008 में गठित भूमि सुधार परिषद की अभी तक एक भी बैठक नहीं हुई है. हम पिछले दो सालों से प्रधानमंत्री से मिलने के लिए लगातार पत्र लिख रहे हैं ताकि उनसे मिल कर परिषद की बैठक बुलाने का आग्रह कर सकें. लेकिन किसानों की समस्याओं पर बातचीत के लिए उनके पास समय ही नहीं है. लिहाजा हम अब परिषद के सदस्य के रूप में शामिल मुख्यमंत्रियों से मिल कर उन पर परिषद की बैठक बुलाने के लिए जोर डाल रहे हैं

अपने सुनहरे भविष्य का सपना देख रहा था, तब  देश पंडित नेहरू की औद्योगिक नीति को अमली जामा पहनाने में जुटा था. भारत की तरक्की के लिए देशभर में उद्योग और कल कारखाने लगाने थे. तब दिल्ली से सटे गाजियाबाद सीमा पर उद्योग लगाने के लिए उत्तर प्रदेश राज्य राज्य औद्योगिक विकास निगम (यूपीएसआईडीसी) ने बड़े पैमाने पर किसानों की जमीन अधिग्रहित की थी. करीब पांच किलोमीटर लंबाई में फैले साहिबाबाद इंडस्ट्रियल एरिया साइट फोर के लिए 1969 से 1978 के बीच राज्य सरकार ने आसपास के छह गावों की करीब 1495 एकड जमीन अधिग्रहित की थी. इसमें एक बड़ा हिस्सा कड़कड़ माडल गांव के किसानों का है.
करीब 10 हजार आबादी वाला यह गांव विकास की भेंट चढ़ चुका है. शापिंग मॉल, बिजनेश पार्क, फाइव स्टार होटल और पॉस कालोनियों से घिरा यह आधुनिक भारत का गांव पूरी तरह से स्लम में तब्दील हो चुका है. वजह है यहां रहने वाले पचास हजार मजदूर. दरअसल यही मजदूर अब गांव के किसानों की रोजी रोटी का जरियां हैं. रोजगार के अभाव में लोगों ने अपने बड़े घरों को छोटे छोटे दडबों में तब्दील कर दिया है और उन्हें मजदूरों को किराए पर दे दिया है. ठाकुर बाहुल्य इस गांव में ज्यादातर बड़े किसान थे. जिनके पास सैकड़ों बीघे
जमीन हुआ करती थी. लेकिन अब इनमें से ज्यादातर मजदूरी करते हैं तो कुछ ने चाय, परचून, सब्जी, मिठाई और कारपेंटरी की दुकान खोल ली है. इनका पूरा कारोबार भी बाहर से आए अप्रवासी मजदूरों पर ही निर्भर है. 
भूमि अधिग्रहण कानून 1894 में साफ प्रावधान है कि जिन किसानों की जमीन पर फैक्ट्री या कारखाने लगाए गए हैं, उनके परिवार के सदस्यों को उसमें रोजगार दिया जाए. साथ ही इस कानून में उचित मुआवजे के साथ साथ पुनर्वास का भी प्रावधान है. लेकिन रोजगार की बात तो दूर हमें न तो उचित मुआवजा मिला है न तो पुनर्वास किया गया.गांव के नौजवान चाहते हैं की उनकी बर्बादी की जिम्मेदार सरकार उन्हें रोजगार मुहैया कराए. साथ ही उनकी मांग है कि जितनी जमीन अधिग्रहित की गई है उसका 10 फीसदी हिस्सा उन्हें प्लाट के रूप में वापस किया जाए.
मित्तल स्टील प्लांट को झारखंड में अपना उद्योग लगाने के लिए 10,000 हेक्टेयर जमीन चाहिए। इस प्लांट की वार्षिक उत्पादन क्षमता 12 मिलियन टन होगी। इसके अलावा बाजार-टाउनशिप आदि के लिए भी जमीन चाहिए। अधिग्रहण हेतु मित्तल स्टील प्लांट के सर्वे के आधार पर जिला खूंटी के तोरपा
प्रखंड, रनिया प्रखंड, कर्रा प्रखंड; गुमला जिले के कमडरा प्रखंड के गांवों को विस्थापित किया जाना है।
यदि हम एक बार अर्जुन मुंडा के इस बयान को (जो उन्होंने करार के समय दिया) यदि मान भी लें कि मित्तल स्टील प्लांट औद्योगिक विकास को चार चांद लगायेगा और देश की अर्थव्यवस्था को सुदृढ करने में सहयोगी भी सिद्ध होगा, तो यह सवाल तो बना ही रहेगा कि उन लोगों का क्या होगा, जो पीढि़यों से इस क्षेत्र में रहते आ रहे हैं और उनके पास असाध्य खेती, मजदूरी, जंगली लकड़ी और जंगली जड़ी-बूटियों के अलावा जीवन-निर्वाह का कोई अन्य साधन भी नहीं है। फिर मुख्यमंत्री अर्जुन मुण्डा जी बतायें कि जिस विकास से हजारों परिवारों को अपना घर, द्वार, खेती, जंगल आदि सब कुछ छोड़ कर विस्थापित होना पड़ेगा; उनके लिए यह विकास किस काम का; क्योंकि इतिहास गवाह है कि देश में जितने भी विस्थापन हुए हैं, उन विस्थापनों से विस्थापित आज भी तबाही की भयंकर त्रासदी से उबर नहीं सके हैं, ऐसे में फिर ऐसी कौन सी जादुई छड़ी है अर्जुन मुण्डा जी के पास जिससे विस्थापितों को यह गारंटी मिल सके कि उनका कल सुहावना होगा?
पिछले विस्थापनों से स्पष्ट है कि विस्थापित परिवार को घर के बदले घर तथा मुआवजा दे दिये जाने लेकिन जीविका का स्थाई साधन मुहैया नहीं कराये जाने पर विस्थापन संबंधी सारी सुविधायें नाकाफी होती हैं. विस्थापित परिवार को रहने के लिए घर बनाना होता है. अतः मुआवजे से प्राप्त ज्यादातर रकम घर बनाने में खर्च हो जाती है. फिर से जि+ंदगी को ढर्रे पर लाने के लिए उसके पास कुछ नहीं होता है. ऐसे में एक सामान्य जि+ंदगी जीने वाला परिवार भी पूरी तरह से पिछड़ जाता है.बरबाद हो जाता है, क्योंकि उसके सारे संसाधन, आवास और पैठ वाला क्षेत्र जो छूट जाता है. चूंकि विस्थापित क्षेत्र उसके लिए नया होता है. अतः उसे सहज रोजगार और संबंधों की बिना पर मिलने वाले सहयोग की सौगात भी नहीं मिल पाती है. नए वातावरण, परिवेश तथा क्षेत्र में तालमेल बिठा पाने के लिए उन्हें बाजार की सुविधाओं, नौकरियों, उचित आवास और सामुदायिक व्यवस्था के सामंजस्य के अभाव को झेलना पड़ता है. अतः उसे संबंधों और सहज उपलब्ध रोजगार की बिना पर मिलने वाला सहयोग भी नहीं मिल पाता है. नए वातावरण, परिवेश तथा क्षेत्र में तालमेल बिठा पाने, रोजगार तलाशने और व्यवस्थित जीवन की तलाश में हर रोज भटकना पड़ता है, क्योंकि विस्थापित होने के बाद परिवार में केवल एक ही व्यक्ति को रोजगार दिये जाने का प्रावधान होता है, जो कि परिवार के भरण-पोषण और अन्य जरूरतों के हिसाब से नाकाफी है.
जहां तक विस्थापन के चलते जमीन के अधिग्रहीत होने का सवाल है तो जमीन के बदले जमीन पहली शर्त होनी चाहिए, क्योंकि सरकार अक्सर जमीन की कमी का रोना रोकर अपने आपको अलग कर लेती है. साथ ही करार में यह भी दिया रहता है कि विस्थापित होने वाले लोगों परिवारों की अधिगृहीत की जाने वाली जमीन के बदले यदि सरकार के पास जमीन होगी तो दी जावेगी अन्यथा उन्हें मुआवजे और परिवार में एक सदस्य के रोजगार मात्र पर ही संतोष करना पड़ेगा. ऐसी स्थिति में परिवार के एक सदस्य को रोजगार मिलने मात्र से समस्या का समाधान नहीं होने वाला.
यहां विचारणीय बात यह भी है कि जब सरकार और निवेश करने वाली कंपनी प्लांट स्थल के आसपास ही अपने कर्मचारियों के लिए आवास मुहैया करवाती है, यातायात, पानी, पार्क, बिजली, बच्चों की शिक्षा, दूरसंचार आदि की यथावत् सुविधा मुहैया कराने की व्यवस्था करती हैं ताकि प्लांट के लिए अहम जरूरी मानव श्रम सहज और यथासमय उपलब्ध होता रह सके. तो फिर विस्थापितों की जिंदगी को यथाशीघ्र ढर्रे पर लाकर बेहतर बनाने की जिम्मेदारी सरकार की नहीं तो और किसकी है ?

आदिवासियों की जमीन हथियाने के लिए सरकार ने पहली कोशिश 1907 में की थी, जब कालीमाटी क्षेत्र में टाटा को अपनी फैक्टरी लगानी थी। यह क्षेत्र आदिवासियों के शक्तिशाली संघर्ष के इतिहास के रूप में जाना जाता हैं जिनमें बिरसा मुंडा के नेतृत्व में 1895 और 1900 के बीच चला संघर्ष प्रमुख है। इन्हीं संघर्षों से मजबूर होकर ब्रिटिश सरकार को छोटानागपुर टैनेन्सी एक्ट बनाना पड़ा. इस अधिनियम के तहत आदिवासी जमीन गैरआदिवासियों को हस्तांतरित नहीं की जा सकती। फिर भी इन कानूनों का सुरक्षात्मक उल्लंघन होता रहा है. राष्ट्रीय मिनरल पाॅलिसी 1993 के तहत खनन वाले क्षेत्रों में 100 प्रतिशत विदेशी निवेश संभव है. तेरह ऐसे खनिज हैं जिन्हें पहले सार्वजनिक क्षेत्र के लिए सुरक्षित रखा गया था, लेकिन उन्हें अब निजी क्षेत्रों के लिए खोल दिया गया है. अब सरकार इन उद्योगों के लिए पर्यावरण और वन मंत्रालय से अनुमति लेने की प्रक्रिया को आसान बनाने और खनिजों के लिए अनुदान देने की कोशिश में लगी है.
झारखंड सरकार भी देशी और विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को पूंजी निवेश के लिए न्यौता देती जा रही है. पूंजी निवेशकों को आकर्षित करने के लिए सरकार सभी तरह का प्रशासनिक और ढांचागत सहयोग दे रही है और यहां तक कि कानूनों में बदलाव भी कर रही है, बड़े उद्योगों की 30 साल की लीज को बढ़ाकर 90 साल तक किया जा रहा है और 3 महीने में लीज देने का वादा किया जा रहा है. ऐसे में तमाम सवाल खड़े होते हैं  

यमुना एक्सप्रेस वे इंडस्ट्रियल डेवलपमैंट आथॉरिटी अपना काम शुरू करेगी और इसके दायरे में 850 और गांव आएंगे जिन पर तथाकथित उद्योग लगेंगे. यह किसी से छिपा नहीं है कि बड़े शहरों के पास उद्योगों के नाम पर जो क्षेत्र विकसित किए गए और निर्धारित किए गए मूलत: वे रिहायशी कामों के लिए इस्तेमाल किए जाते रहे हैं क्योंकि इस क्षेत्र में उद्योग लगाने से कई गुना ज्यादा लाभ मिलता है. स्वयं नोएडा और ग्रेटर नोएडा में यह बात बड़े पैमाने पर देखी जा सकती है. यही नहीं दिल्ली, मुंबई और कोलकाता की पुरानी मिलों और फैक्ट्रियों की जमीनों को अंतत: आवासीय क्षेत्र में बदल दिया गया. वैसे भी दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों को अब और औद्योगिक विकास के लिए विकसित करना किसी भी रूप में उचित नहीं है. विकास का विकेंद्रीकरण जरूरी है, जिसकी ओर न तो केंद्र सरकार का ध्यान है और न ही राज्य सरकारों का.देश में बने एशिया के सबसे बडे़ टिहरी बांध को ही ले लीजिये. वर्ष 1965 में बांध निर्माण की घोषणा के साथ ही स्थानीय लोगों ने इसके खिलाफ लामबंदी शुरू कर दी थी.

चार दशक तक  निरंतर आंदोलन चलाने से लेकर न्यायालय का दरवाजा खटखटाने का सिलसिला चलता रहा, लेकिन विकास की दुहाई देकर 190 वर्ष पुराने ऐतिहासिक और सांस्कृतिक शहर को डुबो दिया गया.
बयालीस वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल, लगभग साठ किलोमीटर लंबी एवं 160 किलोमीटर परिधि वाली विशालकाय झील में टिहरी शहर सहित 125 गांव पूर्ण रूप से तथा 88 गांव आंशिक रूप से समा गये। 
लगभग सवा लाख आबादी को अपनी पैतृक जगहों से विस्थापित होना पडा़। कई हजार एकड़ जमीन, हरी भरी घाटियां और जल स्रोत झील  में समा गये. इस सबके बावजूद टिहरी उजडे़ हुए लोगों की दास्तां बनकर रह गया. विस्थापित और प्रभावित परिवारों को न तो उनकी अपेक्षानुसार रोजगार मिला और न उनका उचित पुनर्वास ही हो पाया.
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विकास तो जनता के लिए होना चाहिए न कि जनता की कीमत पर. सरकारें भी इसी बात का ढिंढोरा पीटती हैं कि विकास जनता के लिए किया जाना है. लेकिन देखने में यह आया है कि जो कुछ हो रहा है वो एकदम इसके विपरीत है.अर्थात् विकास के नाम पर गरीब आदिवासी किसान जनता को तबाह कर उन्हें बेमौत मरने के लिए मजबूर किया जा रहा है. संदेह होने लगा है दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की चकाचैंधपूर्ण ओढ़नी ओढ़ने वाले देश भारत की वास्तविकता पर?
 नोट-ये सभी तथ्य नेट अखबारों और पत्रिकाओ से लिए गए है ये लेख लिखने का उद्धेश्य केवल विस्थापन का विस्तार से जानने की कोशिश है 

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