भारत का भविष्य खतरें में
मानो कोई सपना हो। ईमारतों पर लाइटें सजी हुई थी। रंग-बिरंगे गुब्बारे एक शोरूम के बाहार लगे हुऐ दिखाई पड़े। डीटीसी बस थोड़ी सी आगे सरकी। सड़क पर बहुत ज्यादा जाम लगा हुआ था। कुछ बच्चे स्कूल से मुस्कुराते हुए घर की और भाग रहे थे। मन खुश हो गया। बच्चों की खुशी देखकर। डीटीसी बस का क्या था? वह दिल्ली के जाम में रो-रो कर चल रही थी। दूसरी और मंज़र होना स्वभाविक भी था क्योंकि, कॉमनवेल्थ जो हुआ था। न जाने क्या-क्या लग रखा था। जिससे दिल्ली की चका-चैंध कम होती नजर नही आई। दिल्ली पहले वाली दिल्ली नहीं रही वह तो बदल गई है।
कोई आवाज शायद मुझे पुकार रही थी। बाबूजी, ‘दो रुपये दे दो’। आवाज फिर आई। एक लड़की व उसकी गोद में एक और छोटा बच्चा था। उम्र करीब 8 और 3 वर्ष होगी। आवाज फिर से आई। अबकी बार आवाज में क्रोध व करूणा के स्वर मिश्रित थे। मैंने जेब से सिक्का निकाला तो बस चल दी थी इसलिए मैंने जल्दी से सिक्का उसकी और फेंक दिया।
अब मेरा मन विचलित सा हो गया। उन बच्चों का चेहरा मेरी आंखों के सामने बार-बार घूम रहा था। सब छोड़ मैं उन बच्चों के बारे में सोचने लगा। न जाने मुझे क्या याद आ रहा था कभी निठारी, हत्या कांड, तो कभी डॉक्टरों द्वारा बच्चों का बदलना। मेरे मन की स्थिति यह थी की इनके बारे में सोचता ही चला गया, गहराई से और गहराई से।
अचानक बस के ब्रेक लगे और मैंने अपने आपको दिल्ली के ऐतिहासिक ईमारत इंडिया गेट पर पाया। यहाँ का नजारा दूसरा था। बच्चे देश के शहिदों को याद कर रहे थे। फूल अर्पित कर रहे थे। उनकी
स्मृति चिन्ह्; तस्वीर के सामने मोमबत्ती व दिये जला रहे थे। बच्चे बहुत खुश थे। स्थिति फिर वही सोचने वाली बन गई। क्या इंडिया और भारत का ये फासला कभी मिट पायेगा?
रविवार का दिन, दिल्ली के एक खासम-खास चैराहें पर, वक्त 12 बजे का था। कुछ बच्चे सड़क के बीच में यानी दो सड़कों के डिवाइडर पर खड़े हुए थे। मैं काफी देर तक उन्हे देखता रहा। जब रेडलाइट हो जाती तो वे फिर से अपने-अपने काम में जुट जाते। एक-दो रुपये भीख मांग रहे थे। कुछेक मुंगफली,
चने बेच रहे थे। कभी-कभार कोई खरीद भी लेता। दूसरे बच्चे को ज्यादातर कुछ नहीं मिलता था। हरी बत्ती होते ही, थक हार कर वह अपनी जगह पर आ जाते। लेकिन, फिर एक नई रेडलाइट के साथ ताजगी और उत्साह के साथ फिर वहीं काम में लग जाते। दिल्ली के किसी भी चैराहों पर यही स्थिति देखने को मिल जायेगी।
दूसरी और जरा सी नजर चुकने पर, आपकी कार से कोई भी छोटा व महँगा समान गायब हो जाता है। झटके से आपके गले की चैन, बैंग गबन कर जाते है। ये भीख मांगने की आड़ में चोरी करते हैं। शिकार की हालत बेबस जैसी होती है। वह आगे बढ़ने में ही भलाई समझता है।
भारत की गरीबी और भीख मांगने पर हिन्दी सिनेमा ने अच्छा चित्रांकन किया है। स्लमडॉग मिलेनियर ऐसी ही फिल्म है। जहाँ बच्चों से भीख मंगवाने जैसे दृश्य दिखाये गये है। फिल्म को 8 अवार्ड भी मिले है। यह भारत के चेहरे पर मारा गया एक तमाचा है।
जिससें भारतीय गरीब बच्चों की हकिकत को दर्शाया है। ऐसी हकिकत ही सरकार की योजनाओं की पोल खोलती है। वही सिर्फ अकेली फिल्म नहीं है न जाने ऐसी कितनी फिल्में, डाक्यूमेंट्री में बनी हुई है। जो कि, गरीब के दृश्यों को बेचकर पैसा दस्तूर अभी भी जारी है।
दिल्ली में बच्चा चोर गैंग में भी अपना आतंक फेला रखा है। आये दिन खबर आती है बच्चा गैंग पकड़ा गया। ज्यादातर ये बच्चे शादी, पार्टियों में लोगों शिकार बनाते है। बच्चा गैंग में 7 से 18 वर्ष तक के बच्चे होते है। ये ज्यादातर भीड़-भाड़ में अपना शिकार पर हाथ साफ करते है। दिल्ली के कुछेक खास इलाके है जहाँ ये बच्चा गैंग बसों में भी हाथ की करामात दिखाते है। बच्चा गैंग को कोई बड़ा शातिर दिमाग चलता है। इसे मास्टर मांइड कहा जाता है। मास्टर मांइड टारगेट को बताने के एवेज में आधे से ज्यादा चोरी किये हुऐ माल का लेता है।
ये सब दिल्ली के उस चौराहे पर हो रहा था जहां से देश का सबसे बड़ा न्याय का मंदिर कुछ ही दूरी पर स्थित है। यदि ऐसा ही चलता रहा, तो इंडिया जरूर विश्व के विकासशील देशों की आग्रह श्रेणी में खड़ा होगा। लेकिन, भारत वहीं पिछड़ी हुई स्थिति पर बना रहेगा। सरकार इससे निपटने के लिए क्या कर रही है पता नहीं, लेकिन एक बात तो तय है। जब तक ऐसे बच्चे सड़कों पर भीख व चोरी करते रहेगें। तब तक दिल्ली सुरक्षित नहीं रह सकती। दिल्ली की सरकार की ओर से बनाई गई सरकारी योजनाऐं जो इन बच्चों के लिए बनाई गई है, वह कहाँ काम कर रही है? कब तक देश का भविष्य ऐसे ही सड़कों पर घूमता रहेगा?