


अपने सुनहरे भविष्य का सपना देख रहा था, तब देश पंडित नेहरू की औद्योगिक नीति को अमली जामा पहनाने में जुटा था. भारत की तरक्की के लिए देशभर में उद्योग और कल कारखाने लगाने थे. तब दिल्ली से सटे गाजियाबाद सीमा पर उद्योग लगाने के लिए उत्तर प्रदेश राज्य राज्य औद्योगिक विकास निगम (यूपीएसआईडीसी) ने बड़े पैमाने पर किसानों की जमीन अधिग्रहित की थी. करीब पांच किलोमीटर लंबाई में फैले साहिबाबाद इंडस्ट्रियल एरिया साइट फोर के लिए 1969 से 1978 के बीच राज्य सरकार ने आसपास के छह गावों की करीब 1495 एकड जमीन अधिग्रहित की थी. इसमें एक बड़ा हिस्सा कड़कड़ माडल गांव के किसानों का है.

जमीन हुआ करती थी. लेकिन अब इनमें से ज्यादातर मजदूरी करते हैं तो कुछ ने चाय, परचून, सब्जी, मिठाई और कारपेंटरी की दुकान खोल ली है. इनका पूरा कारोबार भी बाहर से आए अप्रवासी मजदूरों पर ही निर्भर है.




यदि हम एक बार अर्जुन मुंडा के इस बयान को (जो उन्होंने करार के समय दिया) यदि मान भी लें कि मित्तल स्टील प्लांट औद्योगिक विकास को चार चांद लगायेगा और देश की अर्थव्यवस्था को सुदृढ करने में सहयोगी भी सिद्ध होगा, तो यह सवाल तो बना ही रहेगा कि उन लोगों का क्या होगा, जो पीढि़यों से इस क्षेत्र में रहते आ रहे हैं और उनके पास असाध्य खेती, मजदूरी, जंगली लकड़ी और जंगली जड़ी-बूटियों के अलावा जीवन-निर्वाह का कोई अन्य साधन भी नहीं है। फिर मुख्यमंत्री अर्जुन मुण्डा जी बतायें कि जिस विकास से हजारों परिवारों को अपना घर, द्वार, खेती, जंगल आदि सब कुछ छोड़ कर विस्थापित होना पड़ेगा; उनके लिए यह विकास किस काम का; क्योंकि इतिहास गवाह है कि देश में जितने भी विस्थापन हुए हैं, उन विस्थापनों से विस्थापित आज भी तबाही की भयंकर त्रासदी से उबर नहीं सके हैं, ऐसे में फिर ऐसी कौन सी जादुई छड़ी है अर्जुन मुण्डा जी के पास जिससे विस्थापितों को यह गारंटी मिल सके कि उनका कल सुहावना होगा?
पिछले विस्थापनों से स्पष्ट है कि विस्थापित परिवार को घर के बदले घर तथा मुआवजा दे दिये जाने लेकिन जीविका का स्थाई साधन मुहैया नहीं कराये जाने पर विस्थापन संबंधी सारी सुविधायें नाकाफी होती हैं. विस्थापित परिवार को रहने के लिए घर बनाना होता है. अतः मुआवजे से प्राप्त ज्यादातर रकम घर बनाने में खर्च हो जाती है. फिर से जि+ंदगी को ढर्रे पर लाने के लिए उसके पास कुछ नहीं होता है. ऐसे में एक सामान्य जि+ंदगी जीने वाला परिवार भी पूरी तरह से पिछड़ जाता है.बरबाद हो जाता है, क्योंकि उसके सारे संसाधन, आवास और पैठ वाला क्षेत्र जो छूट जाता है. चूंकि विस्थापित क्षेत्र उसके लिए नया होता है. अतः उसे सहज रोजगार और संबंधों की बिना पर मिलने वाले सहयोग की सौगात भी नहीं मिल पाती है. नए वातावरण, परिवेश तथा क्षेत्र में तालमेल बिठा पाने के लिए उन्हें बाजार की सुविधाओं, नौकरियों, उचित आवास और सामुदायिक व्यवस्था के सामंजस्य के अभाव को झेलना पड़ता है. अतः उसे संबंधों और सहज उपलब्ध रोजगार की बिना पर मिलने वाला सहयोग भी नहीं मिल पाता है. नए वातावरण, परिवेश तथा क्षेत्र में तालमेल बिठा पाने, रोजगार तलाशने और व्यवस्थित जीवन की तलाश में हर रोज भटकना पड़ता है, क्योंकि विस्थापित होने के बाद परिवार में केवल एक ही व्यक्ति को रोजगार दिये जाने का प्रावधान होता है, जो कि परिवार के भरण-पोषण और अन्य जरूरतों के हिसाब से नाकाफी है.

जहां तक विस्थापन के चलते जमीन के अधिग्रहीत होने का सवाल है तो जमीन के बदले जमीन पहली शर्त होनी चाहिए, क्योंकि सरकार अक्सर जमीन की कमी का रोना रोकर अपने आपको अलग कर लेती है. साथ ही करार में यह भी दिया रहता है कि विस्थापित होने वाले लोगों परिवारों की अधिगृहीत की जाने वाली जमीन के बदले यदि सरकार के पास जमीन होगी तो दी जावेगी अन्यथा उन्हें मुआवजे और परिवार में एक सदस्य के रोजगार मात्र पर ही संतोष करना पड़ेगा. ऐसी स्थिति में परिवार के एक सदस्य को रोजगार मिलने मात्र से समस्या का समाधान नहीं होने वाला.
यहां विचारणीय बात यह भी है कि जब सरकार और निवेश करने वाली कंपनी प्लांट स्थल के आसपास ही अपने कर्मचारियों के लिए आवास मुहैया करवाती है, यातायात, पानी, पार्क, बिजली, बच्चों की शिक्षा, दूरसंचार आदि की यथावत् सुविधा मुहैया कराने की व्यवस्था करती हैं ताकि प्लांट के लिए अहम जरूरी मानव श्रम सहज और यथासमय उपलब्ध होता रह सके. तो फिर विस्थापितों की जिंदगी को यथाशीघ्र ढर्रे पर लाकर बेहतर बनाने की जिम्मेदारी सरकार की नहीं तो और किसकी है ?

झारखंड सरकार भी देशी और विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को पूंजी निवेश के लिए न्यौता देती जा रही है. पूंजी निवेशकों को आकर्षित करने के लिए सरकार सभी तरह का प्रशासनिक और ढांचागत सहयोग दे रही है और यहां तक कि कानूनों में बदलाव भी कर रही है, बड़े उद्योगों की 30 साल की लीज को बढ़ाकर 90 साल तक किया जा रहा है और 3 महीने में लीज देने का वादा किया जा रहा है. ऐसे में तमाम सवाल खड़े होते हैं

चार दशक तक निरंतर आंदोलन चलाने से लेकर न्यायालय का दरवाजा खटखटाने का सिलसिला चलता रहा, लेकिन विकास की दुहाई देकर 190 वर्ष पुराने ऐतिहासिक और सांस्कृतिक शहर को डुबो दिया गया.
बयालीस वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल, लगभग साठ किलोमीटर लंबी एवं 160 किलोमीटर परिधि वाली विशालकाय झील में टिहरी शहर सहित 125 गांव पूर्ण रूप से तथा 88 गांव आंशिक रूप से समा गये।
लगभग सवा लाख आबादी को अपनी पैतृक जगहों से विस्थापित होना पडा़। कई हजार एकड़ जमीन, हरी भरी घाटियां और जल स्रोत झील में समा गये. इस सबके बावजूद टिहरी उजडे़ हुए लोगों की दास्तां बनकर रह गया. विस्थापित और प्रभावित परिवारों को न तो उनकी अपेक्षानुसार रोजगार मिला और न उनका उचित पुनर्वास ही हो पाया.
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नोट-ये सभी तथ्य नेट अखबारों और पत्रिकाओ से लिए गए है ये लेख लिखने का उद्धेश्य केवल विस्थापन का विस्तार से जानने की कोशिश है