भ्रूण हत्या,शिशु हत्या और मानव तस्करी जैसे अपराधों के कारण भारत की छवि दुनिया में खराब
होती जा रही है। एक सर्वे में भारत को महिलाओं के लिए चौथा खतरनाक देश बताया गया है। सर्वे थॉमसन रॉयटर्स ट्रस्ट लॉ वूमेन की ओर से कराया गया है। सर्वे के दौरान 213 विशेषज्ञों की राय ली गई। 2009 में भारत के गृह सचिव मधुकर गुप्ता नेकहा था कि 100 मिलियन लोग मानव तस्करी में शामिल हैं। 2009 में सीबीआई ने अनुमान लगाया था कि 90 फीसदी मानव तस्करी देश में ही होती है। सीबीआई के मुताबिक देश में तीन मिलियन सेक्स वर्कर हैं। इनमें से 40 फीसदी बच्चे हैं।
2009 के मुकाबले 2010 में ज्यादा हुआ अपराध
दिल्ली पुलिस द्वारा दिए गए आपराधिक आंकड़ों के मुताबिक जहां वर्ष 2009 में फिरौती के लिए अपहरण के 27 मामलों के मुकाबले 2010 में कुल 16 ही मामले दर्ज किए गए। यही हाल दंगे के मामलों में भी रहा 2009 के 58 के मुकाबले 2010 में कुल 50 ही मामले दर्ज किए गए।
हाल ही में जारी चाइल्ड राइट्स एंड यू ( क्राई ) की एक रिपोर्ट में इस बात का खुलासा हुआ है कि दिल्ली से रोजाना 18 से 20 बच्चे गुम हो जाते हैं , जिनमें से ज्यादातर की उम्र 12 से 18 साल के बीच होती है। इन गुमहोने वाले बच्चों में से
6.76 प्रतिशत की उम्र 0-6 साल,
6.76 प्रतिशत की 7-12 साल और
72.8 प्रतिशत की उम्र 12-18 साल के बीच होती है। क्राई की डायरेक्टर योगिता वर्मा ने कहा "बच्चों को सुरक्षित रखने के लिए काफी जरूरी है कि सभी केसों के अपडेटेड रेकॉडर्स हों।"
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के एक आंकलन के हवाले से 2002 में दुनियाभर से करीब 12 लाख बच्चों की तस्करी हुई। वहीं युनाइटेड स्टेट्स डिपार्टमेंट आफ स्टेट के आकड़ों (2004) का दावा है कि दुनिया में तस्करी के शिकार कुल लोगों में से आधे बच्चे हैं। अकेले बच्चों की तस्करी से हर साल 10 अरब डालर के मुनाफे का अनुमान है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के बाल मजदूरी से जुड़े आकड़ों (2000) का अनुमान है कि सेक्स इंडस्ट्री में 18 लाख बच्चों का शोषण हो रहा है। इनमें भी खासतौर से लड़कियों की तस्करी विभिन्न यौन गतिविधियों के लिए हो रही है। इसी तरह अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन का यह भी अनुमान है कि घरेलू मजदूरी में भी लड़कियों की संख्या सबसे ज्यादा होती है।
प्राकृतिक आपदाओं की वजह में बच्चों की तस्करी करने वाले गिरोहों की सक्रियता भी बढ़ रही है। इस दौरान यह गिरोह अपने परिवार वालों से बिछुड़े और गरीब परिवार के बच्चों को निशाना बनाते
प्राकृतिक आपदाओं की वजह में बच्चों की तस्करी करने वाले गिरोहों की सक्रियता भी बढ़ रही है। इस दौरान यह गिरोह अपने परिवार वालों से बिछुड़े और गरीब परिवार के बच्चों को निशाना बनाते
हैं। इसके अलावा गरीबी के चलते कई मां-बाप अपनी बेटी को आर्थिक संकट से उभरने का उपाय मानते हैं और पैसों की खातिर उसकी शादी किसी भी आदमी के साथ कर देते हैं। इन दिनों अधेड़ या बूढ़े आदमियों के लिए नाबालिग लड़कियों की मांग बढ़ती जा रही है। उन बच्चों के बीच तस्करी की आशंका बढ़ जाती है जिनके जन्म का रजिस्ट्रेशन नहीं हुआ है। युनाइटेड नेशन्स चिल्ड्रन्स फंड, बर्थ रजिस्ट्रेशन के मुताबिक 2000 में 41 प्रतिशत बच्चों के जन्म का रजिस्ट्रेशन नहीं हुआ। बच्चों की कानूनी पहचान न होने से उनकी तस्करी करने में आसानी हो जाती है। ऐसे में लापता बच्चों का पता -ठिकाना ढ़ूढ़ना मुश्किल हो जाता है।
तस्करी और लापता बच्चों के बीच गहरे रिश्ते का खुलासा एनएचआरसी की रिसर्च रिपोर्ट (2004) भी करती है जिसमें कहा गया है कि भारत में एक साल 30 हजार से ज्यादा बच्चों के लापता होने के मामले दर्ज होते हैं, इनमें से एक तिहाई का पता नहीं चलता है।
तस्करी के तार अंतर्राष्ट्रीय और संगठित अपराध की बहुत बड़ी दुनिया से जुड़े हैं। यह इतनी भयानक, विकराल और अदृश्य दुनिया है कि इसे ज्यों का त्यों स्वीकार कर लेना आसान नहीं है। यह शारारिक और यौन शोषण के घने जालों से जकड़ी एक ऐसी दुनिया है जिसको लेकर सटीक नतीजे तक पहुंच पाना भी मुश्किल है।
तस्करी को पालेर्मो प्रोटोकाल ( 2000) के अनुच्छेद 3 और 5 में दी गई परिभाषा के मुताबिक : ‘‘व्यक्तियों की तस्करी का अर्थ धमकी या जबरन या अपहरण जालसाजी, धोखे, सत्ता के गलत इस्तेमाल, असहायता की स्थिति, किसी दूसरे व्यक्ति पर नियंत्रण रखने वाले व्यक्ति की सहमति पाने के लिए पैसे, लाभ के लेन-देन के लिए व्यक्तियों की भर्ती, परिवहन, स्थानांतरण, शरण या प्राप्ति है।’’
दुनिया भर में बच्चों की तस्करी सबसे फायदेमंद और तेजी से उभरता काला धंधा है। क्योंकि एक
तस्करी और लापता बच्चों के बीच गहरे रिश्ते का खुलासा एनएचआरसी की रिसर्च रिपोर्ट (2004) भी करती है जिसमें कहा गया है कि भारत में एक साल 30 हजार से ज्यादा बच्चों के लापता होने के मामले दर्ज होते हैं, इनमें से एक तिहाई का पता नहीं चलता है।
तस्करी के तार अंतर्राष्ट्रीय और संगठित अपराध की बहुत बड़ी दुनिया से जुड़े हैं। यह इतनी भयानक, विकराल और अदृश्य दुनिया है कि इसे ज्यों का त्यों स्वीकार कर लेना आसान नहीं है। यह शारारिक और यौन शोषण के घने जालों से जकड़ी एक ऐसी दुनिया है जिसको लेकर सटीक नतीजे तक पहुंच पाना भी मुश्किल है।
तस्करी को पालेर्मो प्रोटोकाल ( 2000) के अनुच्छेद 3 और 5 में दी गई परिभाषा के मुताबिक : ‘‘व्यक्तियों की तस्करी का अर्थ धमकी या जबरन या अपहरण जालसाजी, धोखे, सत्ता के गलत इस्तेमाल, असहायता की स्थिति, किसी दूसरे व्यक्ति पर नियंत्रण रखने वाले व्यक्ति की सहमति पाने के लिए पैसे, लाभ के लेन-देन के लिए व्यक्तियों की भर्ती, परिवहन, स्थानांतरण, शरण या प्राप्ति है।’’
दुनिया भर में बच्चों की तस्करी सबसे फायदेमंद और तेजी से उभरता काला धंधा है। क्योंकि एक
तो इसमें न के बराबर लागत है और फिर नशा या हथियारों की तस्करी के मुकाबले खतरा भी कम है। इस धंधे में बच्चे कीमती सामानों में बदलते हैं और मांग-पूर्ति के सिद्धांत के हिसाब से देश-विदेश के बाजारों में बिकते हैं। तस्करी में ऐसा जरूरी नहीं है कि बच्चों को अंतर्राष्ट्रीय सीमा के बाहर ही ले जाया जाए। एक बड़ी संख्या में बच्चों की तस्करी गांवों से शहरों में भी होती है। इसके अलावा पर्यटन से जुड़ी मांग और मौसमी पलायन के चलते भी तस्करी को बढ़ावा मिलता है। देश के भीतर या बाहर, दोनों ही प्रकार से बच्चों की तस्करी भयावह अपराध है। इसलिए बच्चों की तस्करी रोकने के लिए सार्वभौमिक न्याय का अधिकार देने वाले कानून की सख्त जरूरत है।
फौजदारी कानूनों को न सिर्फ मजबूत बनाने होंगे बल्कि उन्हें कारगर ढ़ंग से इस्तेमाल भी करने होंगे। बच्चों की तस्करी से जुड़ी सभी गतिविधियों, लोगों और एंजेसियों पर फौजदारी कानून के तहत कार्रवाई हो। इसके अलावा शोषण से संरक्षण देने वाले ऐसे कानून और नीतियां हो जो बच्चों की तस्करी रोकने के लिए सीधे असर सकें। इनमें पलायन, बाल मजदूरी, बाल दुरुपयोग और पारिवारिक हिंसा से जुड़े कानून आते हैं। यहां एक और बात स्पष्ट है कि बच्चों की तस्करी रोकने के कानूनी उपाय तब तक बेमतलब रहेंगे जब तक कानूनों को इस्तेमाल करने और उनकी निगरीनी करने की उचित व्यवस्था नहीं रहेगी। साथ ही साथ तस्करी के शिकार बच्चों को तेजी से पहचानने के लिए कारगर तरीके बनाने और उन्हें अपनाने की भी जरुरत है।
फौजदारी कानूनों को न सिर्फ मजबूत बनाने होंगे बल्कि उन्हें कारगर ढ़ंग से इस्तेमाल भी करने होंगे। बच्चों की तस्करी से जुड़ी सभी गतिविधियों, लोगों और एंजेसियों पर फौजदारी कानून के तहत कार्रवाई हो। इसके अलावा शोषण से संरक्षण देने वाले ऐसे कानून और नीतियां हो जो बच्चों की तस्करी रोकने के लिए सीधे असर सकें। इनमें पलायन, बाल मजदूरी, बाल दुरुपयोग और पारिवारिक हिंसा से जुड़े कानून आते हैं। यहां एक और बात स्पष्ट है कि बच्चों की तस्करी रोकने के कानूनी उपाय तब तक बेमतलब रहेंगे जब तक कानूनों को इस्तेमाल करने और उनकी निगरीनी करने की उचित व्यवस्था नहीं रहेगी। साथ ही साथ तस्करी के शिकार बच्चों को तेजी से पहचानने के लिए कारगर तरीके बनाने और उन्हें अपनाने की भी जरुरत है।
भारत में देह-व्यापार की रोकथाम के लिए ‘भारतीय दण्डविधान, 1860’ से लेकर ‘वेश्यावत्ति उन्मूलन विधेयक, 1956’ बनाये गए। इस स्थिति की जड़े तो समाज की भीतरी परतों में छिपी हैं इसकी रोकथाम तो समाज के गतिरोधों को हटाने से होगी। इस व्यापार से जुड़ी औरतें दो जून की रोटी के लिए लड़ रही हैं। इसलिए विकास नीति में लोगों के जीवन स्तर को उठाने की बजाय उन्हें जीने के मौके देने होंगे। देहव्यापार के गणित को हल करने के लिए उन्हें अपनी जगहों पर ही काम देने का फार्मूला ईजाद करना होगा।
No comments:
Post a Comment