चुनावो से पहले बरसाती मेंढक बहार आ जाते है। चुनावी समय में पुरानी मशीनो में फिर से तेल डाल दिया जाता है। फिर खट खट कर छोटे मेंढको को छाप देती है। चुनाव होने के छह माह पूर्व ये मेंढक बाजार में अपनी आवाज निकलना शुरू करते है। कुछ मेंढक राजनितिक पार्टियों के होते है, और कुछ चुनावो में मिलने वाले चंदे से अपना नाम चलते है। ये साल में यदि कोई बड़ा त्यौहार हो या किसी राष्ट्रीय पर्व पर भी कभी- कभी दीखते है। कुछ पैसा कमाई करके वापिस बिल में चले जाते है। बढ़े मेंढक पुरे साल भर इनको टिकने का मोका नहीं देते है।
राजनितिक पार्टिया भी छोटे मेंढको से अपना प्रचार करवाना बेहतर समझते है। इसके कई कारण होते है।
लेकिन सबसे बड़ा कारण छोटे मेंढको की पंहुच आम आदमी के पास होती है। आम आदमी भी इस मेंढक की तरह ही पेपर (अख़बार) पढ़ते है। कुछ दिन राजनीती की गर्मी में हर कोई अपने हाथ सकने की सोचता है। चाहे उसका स्वरूप किसी भी तरह का हो सकता है। राजनेता से अपना काम छोटे मोटे काम निकलवाना हो या फ्री की शराब का मज़ा लेना हो।
बड़े मेंढक अपना बाजार जमाये हुए है। चुनाव आते ही मेंढको को खाने के लिए हरी और लाल घास राजनितिक पार्टियों से मिल जाती है। ये मेंढक बढ़े है। साल भर अपनी खुराक पार्टियों से लेते रहते है। बदले में उसकी टर टर भी बजा देते है। बड़े मेंढको ने अपनी पंहुच गाँव तक करने के लिए छोटे छोटे मेंढको में बाँट दिया है। लेकिन ये छोटे छोटे मेंढको में भी पार्टी सोच विचार के विज्ञापन देते है। बरसाती मेंढको की पहुँच साल भर चलने वाले छोटे छोटे मेंढको से भी ज्यादा होती है। जनता को ज्यादा प्रभावित करते है। ये मेंढक ग्रामीण को अपना सा लगने वाला होता है। देहाती भाषा का प्रयोग किया जाता है। जिससे लोगो का जल्द ही विश्वास पात्र बन जाता है ।
जल्द ही पांच राज्यों में चुनाव होने वाले है और यहाँ न जाने कितने बरसाती मेंढक आ गया है बाजार में दुकानों पर छोटे बड़े मेढको की भीड़ लगना शुरू हो गई है ।
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